कविता क्यों करता हूँ मैं?

सारथी – सब लोग पूछते हैं, “संदीप क्या हो गया है I कविता लिखनी कब से शुरू कर दी है I” बात भी सही है I कुछ तो बदला ही हैI  पहले कभी किसी ने इस रूप में नहीं देखा था मुझे I औरों की क्या बात करुँ, खुद को भी नहीं जानता था मैं I कश्मकश भरी जिंदगी थीI क्या वह अब ख़त्म हो चुकी है? ऐसा नहीं है जिंदगी भी मालूम पड़ता है बाकि है, कल ही ब्लड टेस्ट कराया था और हां जब तक जिंदगी है कशमश तो साया है उसकाI कैसे पीछा छोड दे, पर हाँ कही एक तिनका मिल गया है जिसके सहारे साहिल पर पहुंचने की कोशिश हैI

दो वाक्ये हुए जिन्होंने मन के अंदर कुछ बदलाव लाये हैंI पहला किसी अपने को खो देने का दुःखI मेरे मामा जिन्होंने अपनी अंतिम सांस ली जुलाई २०१७ मेंI आखिरी वक़्त में, मैं उनके साथ ही थाI जिन्होंने जीवन भर पिता से भी बढ़कर प्रेम दिया हो, उनके जाने के एहसास ने मन को कहीं चीर दिया था. उस कमी को भरा तो नहीं जा सकता पर उनके जाने से जो शून्यता भर दी गयी थी उसको कहीं खाली की जरुरत थीI शून्यता अगर खुद को ढूंढ़ने की कोशिश में हो तो अंधकार भयावह नहीं लगता, पर वही शून्यता अगर प्रकट हो कुछ खो जाने की वजह से तो वही अंधकार लगता है मानो मृत्यु ने जीत हांसिल कर लीI यह लड़ाई उसी अंधकार से थीI

इस दौरान काफी समय से मैं पियूष मिश्रा जी को सुनता था (@officialpiyushmishra)I उनके शब्दों मैं मुझे वह भारत नज़र आता हैं जिसे मैं हमेशा ढूंढ़ता हूँI वह अपनापन मिलता है जो शायद मेरे मामा के जाने की वजह से खो गया है कहींI  वह सादगी मिलती नहीं हैं आजकल इसलिए शायद शब्दों में ढूंढ़ने की कोशिश हैंI  उनके संगीत में, उनकी लय में, उनकी आवाज़ में पाता हूँ मैं अपने आप कोI कोशिश करता हूँ की उनकी सोच से अपनी सोच मिला लूँI कोई रिश्ता नहीं हैं पियूष जी सेI कभी मुलाकात भी नहीं हुई हैंI हाँ इच्छा जरूर है किसी दिन रूबरू होने की, पर न भी मिल पाया तो एक सम्बन्ध तो बन ही गया मानोI एक तरफ़ा ही सहीI ना मिलने का कोई मलाल भी नहीं हैI

मैं अपनी हर कविता मैं सोचता हूँ की अगर पियूष जी होते तो वह क्या सोचते और किस तरह से इस सोच को शब्दों में पिरोतेI वह मेरे प्रेणास्त्रोत हैंI अपने मामा को शब्दों के अतःसागर में ढूंढ़ते ढूंढ़ते मेरी मुलाकात पियूष जी के संगीत से, उनकी कविता से हुई हैI

वही कविताये इस भवसागर में मेरा भी बेडा पर लगाएंगी. इसी सोच के साथ पियूष जी ये आपके लिए –

अकेले चलते जब भीड़ में
कंधे पर पीछे से
रख देता हैं कोई अपना हाथ
और मूंदती पलकों से कहता है

मैं हूँ ना, क्यों डरता है
बढ़ आगे क्यों पीछे छिटकता है
देख अपने चारो ओर
मुझे तो हर शख्स में
तू ही तू दिखता है

फिर क्यों नहीं देख पाता
क्यों मन है तेरा घबराता
मैं देखता हूँ सब मैं तुझको
तू खुद को ही नहीं ढूढ़ पाता

ले पी ले इस “पियूष” को
शांत मन, चित्त शांत

सारथी हूँ – मैं थामता हूँ तेरा हाथ
बढ़ आगे, अब सिर्फ है उजियारा
क्यों तिमिर से घबराता
शून्य मन के क्षितिज पे
सूर्योदय है बहुत ही न्यारा I

संदीप व्यास
०४/२२/२०१८

Picture Credit – http://theshrinkingcouch.com/understanding-accommodating-the-neurodiverse-everyones-responsibility/

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