मेरी नज़्म

एक संवाद है उस पशोपेश से की मन की करें या वह करें जिसे जमाना ठीक मानता हैI एक बार पढ़ा था कहीं की “मन के तो हम फ़क़ीर है, कम्बख़्त दिमाग को पैसा कमाना पड़ता है” बस उसी विचार को यहाँ उकेरा हैI  पाठक इसे अपने मन के तारों से जोड़ खुद का संगीत बना सकते हैंI

मैं जब सोता हूँ
तो मेरी नज़्म जागती है
जगाती है मुझको
कहती है तेरे दिमाग से आऊं
लबों पर
या तेरे मन से आऊं
दिल पर छा जाऊँ

मैं कहता हूँ
मन की सीढ़ी उतरेगी
तो जहन तक जाएगी
दिमाग मैं तो हज़ार शख्स बैठे हैं
एक मारता हूँ
सौ पनपते हैं

इन लोगो को जानता नहीं हूँ मैं
पहचानता नहीं हूँ मैं
मिलते हैं एक मोड़ पर
चीख़ते हैं चिल्लाते हैं
ग़ुम हो जाती हैं इनकी आवाज़
अगले मोड़ तक
ज़माने की चीख़ मेँ

कुछ मन के प्रीत हैं
जिनसे मेरा लगाव है
उन से मिलकर आएगी
तो रूह तक जाएगी

संदीप व्यास
मई १७, २०१८

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