ये दास्ताँ है एक शख़्स की जो एक छोटे से शहर में बड़ा हुआ, अपना जीवन व्यतीत करा और वहीं अपनी आखिरी साँस भी ली I इस दौरान इस शख़्स ने इस शहर को भी बड़ी तेज़ रफ़्तार से बढ़ते देखा हैI आज अष्टभुजा धारी ऑक्टोपस की तरह ये शहर भी बेतरतीब ढंग से बढ़ गया है I वह शख़्स जो अब गुज़र चुका है उसकी साँस अभी भी इसी शहर में कहीं बसी हुई है I वो आता है कभी इस शहर से मिलने इसके आखिरी वक़्त में और सुनता है उसकी दर्दभरी आवाज़ I वहीं आवाज़ उसने पहले भी सुनी है जो उसके अंतर्मन से निकलती थीI
कल रात गुज़रते, शहर से गुज़रा था मैं
कल रात गुज़रते शहर से, गुज़रा था मैं
इन रास्तों को पहचानता हूँ मैं
इस सोये शहर को जानता हूँ मैं
दिन मैं गुज़रना अब मुश्किल है
इसलिए चांदनी छानता हूँ मैं
ये दिन का बूढ़ा शहर
बड़ा कमज़र्फ हो चुका है
जवानी की ख़्वाइश मेँ
हर रोज़ एक बुढ़ापा निगल लेता है
रात मेँ मिलता हूँ , अकेले मेँ
ताकि पूछ सकूँ
क्या तू भी स्याह मेँ ही निकलता है
बचपन जहाँ गुज़रा मेरा
क्या चार कंधो का बीड़ा वहीं से ढलता है
टूटी सड़क के किनारे
सूखे दरख़्त के नीचें
हम रोज़ यही बातें करतें हैं
एक रोज़ कुल्हाड़ी लेकर आया था कोई
शायद फिर कोई शहर गुज़र गया कहीं
इसी सड़क से गुज़रा था शायद
ठूंठ के पास पड़े
मुरझाए फूलों से रात का पता पूछ
रहा था कोई
इस गुज़रते शहर को जानता हूँ मैं
यहीं से गुज़रा हूँ
इन रास्तों को पहचानता हूँ मैं
संदीप व्यास
अप्रैल २१,२०१८
*Image Credit – https://afremov.com/-in-the-old-city-palette-knife-oil-painting-on-canvas-by-leonid-afremov-size-40-x24.html